"अपन भाषाक अखवार " मिथिला आवाज " पढवाक लेल क्लिक करू www.mithilaawaz.org E mail - sonumaithil@gmail.com Mobile-9709069099 & amp; 8010844191

Wednesday, September 18, 2013

सुख-समृद्धि दै छथि भगवान अनन्त

अनन्तरूपेण विभर्षि पृथ्वीमनन्त लक्ष्मीं विद्धासि तुष्ट:।
अनन्त भोगान्  प्रददासि  तुष्टोह्यनन्तमोक्षं पुरुषे प्रहृष्ट:।।
अनन्तरूप धारण कऽ पृथ्वीक चराचर जीवक भरण-पोषण केनिहार, प्रसन्न हेबापर अनन्त लक्ष्मीकेँ प्रदान कऽ अनन्त सुख, ऐश्वर्य, भोगकेँ प्रदान केनिहार आ अन्तमे मोक्ष देनिहार अनन्त स्वरूप भगवान श्री अनन्तक पूजा अनन्त कालसँ होइत आबि रहल अछि। भविष्योत्तर पुराणमे कहले गेल अछि-
संसारसागरगुहासु सुखं विहर्तुं, वाज्छन्ति ये कुरुकुलोद्भव शुद्धसत्वा:।
संपूज्य  च  त्रिभुवनेशमनन्तदेवं, वद्धन्ति  दक्षिण  करे वरडोरकन्ते।।
अर्थात् एहि संसार-सागरमे जे सुख-समृद्धिपूर्वक रहऽ चाहै छथि से चौदह ग्रन्थि (गेँठ)सँ युक्त अनन्तक डोरकेँ बन्है छथि। भाद्र शुक्ल चतुर्दशीकेँ ई पूजन होइत अछि। ई चतुर्दशी उदयव्यापिनी अवश्य हो। पक्षधर मिश्र ‘तिथिचन्द्रिका’मे कहै छथि-
अनन्तस्य व्रते राजन् घटिकैका चतुर्दशी ।
उदये घटिकार्द्धं वा सैव ग्राह्या महाफला।।
अर्थात् जाहि दिन उदयकालसँ एक घण्टा वा आधो घण्टा धरि चतुर्दशी हो, ताही दिन पूजा करी।
एहि पूजामे प्रात: स्नानादि नित्यकृत्यसँ निवृत्त भऽ, सर्वतोभद्र बना ताहिपर कलश-स्थापन कऽ कुशक अनन्त भगवानक प्रतिमा बना राखल जाइत अछि। पिठारसँ अष्टदल अरिपन लीखि अनन्तक पूजन होइत अछि। एहिमे 14 प्रकारक पकमान, 14 प्रकारक फल, फूल ओ नाना प्रकारक नैवेद्यक डाली लऽ टोल भरिक स्त्रीगण वा गाम भरिक स्त्रीगण एकट्ठा होइ छथि आ डालीकेँ एकठाम सजा कऽ राखल जाइत अछि। तदन्तर पूजा होइत अछि। पूजा समात्पिक उपरान्त पुरान डोरकेँ फोलि ताहि संग नवीन 14 गेँठ युक्त अनन्तकेँ गायक दूधसँ भरल बासनमे मथल जाइत अछि।
मथबा काल विधि अछि जे एक व्यक्ति पुछै छथि- की मथै छी?
पूजा केनिहार उत्तर दै छथि- समुद्र।
पुन: प्रश्न होइत अछि- की तकै छी?
पूजा केनिहार उत्तर दै छथि- अनन्त।
पुन: प्रश्न होइत अछि- भेटला?
उत्तर- भेटला। ई कहैत पूजा केनिहार अनन्तक डोरकेँ दूधसँ बहार कऽ माथमे स्पर्श करै छथि। पूजनक उपरान्त पुरुष दहिना हाथमे आ स्त्रीगण वामा हाथमे अनन्तक डोर बन्है छथि। एहि पूजाक संकल्प 14 वर्ष धरिक होइत अछि। किछु लोक जीवन पर्यन्त करै छथि।
अनन्त पूजाक कथा भविष पुराणमे कहल गेल अछि- पाण्डव जखन अत्यन्त दु:खी भेल वनमे उद्विग्न भऽ गेला तँ युधिष्ठिर कृष्ण भगवानकेँ पुछलथिन- हे भगवन! कोनो एहन उपाय कहल जाय जे करबासँ मनुष्यकेँ मनोवाञ्छित फलक प्राप्ति हो। ताहिपर श्रीकृष्ण कहलथिन- पृथ्वीपर स्त्री-पुरुषकेँ कयल सभ पापक मुक्ति अनन्त व्रतसँ होइत अछि। अनन्त डोर बन्हबाक मंत्र अछि-
अनन्त संसार महासमुद्रे, मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव।
अनन्तरूपे विनियोजयस्व, अनन्तरूपाय नमो नमस्ते।।
युधिष्ठिर द्वारा ई जिज्ञासा करबापर जे कहिया आ के पहिल-पहिल अनन्तक पूजन केलनि आ एकर की पुण्य आ फल भेल, पुन: श्रीकृष्ण कहलथिन- सतयुगमे सुमन्तु नामक एक ब्राह्मण ‘दीक्षा’ नामक भृगुपत्नीसँ विवाह केलनि। दीक्षाकेँ शीला नामक कन्या भेलनि। किछु दिनक उपरान्त समन्तुक पत्नी दीक्षाक देहान्त भऽ गेलनि। सुमन्तु पुन: धर्मपुत्रक बेटी ‘कर्कशा’ सँ विवाह केलनि। पुत्री शीला माता-पिताक सेवा करैत रहली। शीलाकेँ युवावस्थामे प्रवेश करैत देखि सुमन्तु कौटिल्य नामक ब्राह्मणसँ विवाह करा देलथिन। विवाहक उपरान्त सुमन्तु अपन पत्नी कर्कशाकेँ कहलथिन जे जमायकेँ किछु धन दान दऽ बिदा करू, मुदा कर्कशा जेहने नाम तेहने गुण। क्रोधेँ लहलह करैत घरमे जे कैञ्चा-कौड़ी छलनि से पेटीमे लऽ कऽ नैहर पड़ा गेली। सुमन्तु सातुक बटखर्चा बान्हि बेटी-जमायकेँ बिदा केलनि। कौटिल्य अपन पत्नीक संग यात्रा केलनि। बाटमे भूख लगलनि तँ दुनू प्राणी एकटा पोखरिक कातमे जलपान करबाक हेतु गेला। ओतऽ शीलाक नजरि पड़लनि, बहुत रास स्त्रीगण सभ एकठ्ठा भऽ लाल-पीयर नूआ पहिरि भगवानक पूजा कऽ रहल छली। जिज्ञासावश शीला हुनका लोकनिकेँ पुछथिन जे ई केहन व्रत थिकै? सभ स्त्रीगण शीलाकेँ कहलथिन जे ई अनन्तक पूजा थिक। एहि व्रतमे बिना अन्न-जल ग्रहण केने नाना प्रकारक पकमान, फल, फूल, नैवेद्य आदिसँ पीताम्बर विष्णुक पूजन होइ छनि। हुनका आगूमे लाल-पीयर 14 गेँठ वला डोर राखल जाइत अछि। पूजाक उपरान्त ई अनन्तक डोर स्त्री वाम हाथमे आ पुरुष दहिनामे बन्है छथि जाहिसँ जीवनमे सतत् सुख-समृद्धि होइत अछि। एहि तरहेँ 14 वर्ष धरि जे ई पूजन करै छथि हुनकर सभ कामनाक पूर्त्ति होइ छनि। ई सुनि शीला स्त्रीगण सभक संग व्रतमे रहि यथाविधि पूजा केलनि आ अनन्तक डोर बन्हलनि। पुन: संगमे राखल जे बटखर्चा छलनि ताहिमेसँ आधा ब्राह्मणकेँ दान दऽ कऽ घर आबि गेली। अनन्त व्रतक प्रभावसँ किछुए दिनमे धन-धान्य आ अपार सम्पत्तिक स्वामिनी बनि गेली। हुनक पति कौटिल्य एक दिन पत्नीक बाँहिमे डोर बान्हल देखि धन मदान्ध भेल कहलथिन- ई की बन्हने छी? ई कहैत अनन्तक डोर तोड़ि कऽ आगिमे फेकि देलथिन। एहिसँ अनन्त भगवान कुपित भऽ गेला। हुनक कोपसँ अनायास चोर-डकैत द्वारा धन-सम्पत्तिक हरण कऽ लेल गेलनि। घर-समाज सर्वत्र कलह उत्पन्न भऽ गेलनि आ ओ परम दरिद्र भऽ गेला। कौटिल्यक पत्नी कहलथिन- अनन्त भगवानक कोपक ई प्रतिफल थिक। कौटिल्य व्याकुल भेल वने-वन यत्र-तत्र अनन्त-दर्शन हेतु बताह जकाँ गाछ-वृक्षसँ पता पूछऽ लगला आ अन्तमे प्राण-त्याग करबा लेल उद्यत भऽ गेला। ई देखि अनन्त स्वरूप   भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मणक रूप धारण कऽ सम्मुख उपस्थित भेलथिन आ अपन चतुभुर्ज रूपमे कौटिल्यकेँ दर्शन देलथिन। कौटिल्य अनेकानेक स्तुतिसँ भगवानकेँ प्रसन्न केलनि। भगवान पुन: अनन्त व्रत आ पूजाक उपदेश देलथिन। भगवानक आज्ञासँ 14 वर्ष धरि कौटिल्य अनन्तक पूजा केलनि आ समस्त सांसारिक ऐश्वर्यक भोग करैत अन्तमे स्वर्गारोहण केलनि। एहि कथाक भविष्य पुराणमे आरो विस्तारसँ वर्णन अछि।


एना करी भगवान अनन्तक पूजन

 पूजाक ओरियान : पूजाक स्थानकेँ पवित्रपूर्वक नीपि, पिठारसँ अष्टदल अरिपन लिखि ओहिमे सिन्दुर लगा ओहिपर एकटा आमक पल्लव देल कलश राखी। कलशमे सिन्दुर-पिठार लागल रहय। पूजाक लेल अनन्तक संग डालीमे सामयिक फलक संग-संग पकमान आदि राखी। तखन पूजा केनिहार हाथमे जल लऽ शुचि मन्त्र पढ़थि-ऊँ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा।य: स्मरेत पुण्डरीकाक्ष: स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:।।मंत्र पढ़बाक बाद हाथक जल यावन्तो पूजा सामिग्री के शिक्त करैत अपना शरीरपर सेहो छीटी। सूर्यादि पंचदेवताक पूजा :  हाथमे अक्षत लऽ ऊँ सूर्यादि पंचदेवता इहागच्छ इहतिष्ठ। हाथक अक्षत पातपर राखि अर्घामे जल लऽ- एतानि पाद्यार्घाचमनीय स्रानीय पुनराचमनीय सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नम:। जल चढ़ा फूलमे चानन लऽ- इंदमनु लेपनंसूर्यादि पंचदेवताभ्यो नम:। अक्षत- इदमक्षतं सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नम:। फूल- एतानि पुष्पानि सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नम:। दूबि- इदं दुर्बादलं सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नम:। विल्वपत्र- इदं विल्वपत्रं सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नम:। अर्घामे जल लऽ- एतानि धूप-दीप ताम्बूल यथाभाग नानाविधि नैवेद्यानि सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नम:। पुन: अर्घामे जल लऽ- इदमाचमनीयं ऊँ सूर्यादि पंचदेवतभ्यो नम:। तखन एकटा फूल लऽ - एष पुष्पांजलि ऊँ सूर्यादि पंचदेवताभ्यो नम:। तहन हाथमे तेकुशा तिल जल लऽ संकल्प :- ऊँ अद्य भाद्रमासीय शुक्लपक्षीय चतुर्दश्याम तिथौ अमुकशर्माहं (अपन  नाम ली) परमानन्त प्रीतिपूर्वकैहिक वहुगोधनधान्य रत्नादिमत्त्व- कल्पान्तस्थायि पुनर्वसु नक्षत्र यवन कामया अनन्त व्रत महंकरिष्ये। ई संकल्प कऽ पूजा आरम्भ करी। पीढ़ीपर कमलक जे अरिपन ताहिपर देल जे कलश ताहिमे कुशक अनन्त महाराज बना ओकरा जनउसँ लपेटि कऽ राखि दी। तहन हाथमे तिल लऽ- ऊँ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य वृहस्पतिर्यज्ञमिमन्तनोत्वरिष्टं यज्ञं समिमं दधातु विश्वेदवास इह मादयन्तामोम्प्रतिष्ठ। ऊँ भगवन अनन्त इह सुप्रतिष्ठतो भव। हाथक तिल ओहि कुशक बनल अनन्तपर चढ़ा हुनका प्रतिष्ठित कऽ हाथमे फूल लऽ दुनू हाथ जोड़ि कऽ - फणासप्तान्वितं देवं चतुर्वाहुं किरीटिनम्। नवाम्रपल्लवाभांस पिंगलस्मश्रुलोचनम्। पिताम्बरंधरं देव शंखचक्रगदाधरम्। कराग्रे दक्षिणे शंखं तपस्यप्यश: करे। चक्रमूद्धवे तथा वामे गदातस्याप्यध: करे। दधानं पद्मं सर्वलोकेशं सर्वाभरणभूषितम्। क्षीराबिधमध्ये श्रीमन्तमनन्तं चन्तयेद्धरिम्। ई पढ़ि हाथक फूल चढ़ा दियनि। पुन: अक्षत लऽ - ऊँ आगच्छानन्तदेवेश तेजो राशे जगत्पते। क्रियमाणां मया पूजां गृहाण सुरसत्तम। ऊँ  अनन्त इहागच्छ इहतिष्ठेत्यावाह्य। हाथक अक्षत पातपर धऽ अर्घामे जल लऽ - ऊँ गंगा च यमुनाचैव नर्मदा च सरस्वती। ताप्तीपयोष्णी रेवा ताभ्य: स्रानार्थ माहृतम। एतानि पाद्यार्घाचमनीय स्रानीय पुनराचमनीय ऊँ अनन्ताय नम:। वस्र- इदं पीतवस्रं वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। यज्ञोपवीत - इमे सोत्तरीय यज्ञोपवीते वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। चानन- इदमनु लेपनम वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। तिल जौ- एते यवतिला वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। फूल- एतानि पुष्पानि वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। माला- इदं पुष्पमाल्यं वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। दूबि- इदं दुर्वादलं वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। तुलसी- इदं तुलसी पत्रम् वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। जल लऽ एतानि गन्ध-पुष्प धूप-दीप ताम्बूल नानाविधि नेवैद्यानि वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। जल लऽ- इदमाचमनीयं वृहस्पति दैवतम् ऊँ अनन्ताय नम:। एकटा फूल- एष पुष्पाञ्जलि ऊँ अनन्ताय नम:।तखन बलभद्रक पूजा : हाथमे अक्षत लऽ - ऊँ भूर्भूव: स्व: बलभद्र इहागच्छ इहतिष्ठेत्यावाह्य। अर्घामे जल लऽ- एतानि पाद्यार्घाचमनीय स्रानीय पुनराचमनीय ऊँ बलभद्राय नम:। चानन-इदमनु लेपनम् ऊँ बलभद्राय नम:। तिल- एते तिला: ऊँ बलभद्राय नम:। फूल- एतानि पुष्पाणि ऊँ बलभद्राय नम:। माला- इदं पुष्पमाल्यम ऊँ बलभद्राय नम:्। दूबि- इदं दूर्वादलं ऊँ बलभद्राय नम:। अर्घामे जल लऽ- एतानि गन्ध-पुष्प धूप-दीप ताम्बूल यथाभाग नानाविध नैवेद्यानि ऊँ बलभद्राय नम:। जल लऽ- इदमाचमनीय ऊँ बलभद्राय नम:। एकटा फूल लऽ- एष पुष्पाञ्जलि ऊँ बलभद्राय नम:। सुमन्तक पूजा : हाथमे अक्षत लऽ - ऊँ भूर्भूव: स्व: सुमन्त इहागच्छ इहतिष्ठेत्यावाह्य। अर्घामे जल लऽ- एतानि पाद्यार्घाचमीनय स्रानीय पुनराचमनीय ऊँ सुमन्ते नम:। चानन- इदमनु लेपनम् ऊँ सुमन्तवे नम:। अक्षत- इदमक्षतं ऊँ सुमन्तवे नम:। फूल- एतानि पुष्पानि ऊँ सुमन्तवे नम:। दूबि- इदं दूर्वादलं ऊँ सुमन्तवे नम:। अर्घामे जल लऽ - एतानि गन्ध-पुष्प धूप-दीप ताम्बूल यथाभाग नानाविधि नैवेद्यानि ऊँ सुमन्तवे नम:। जल- इदमाचनीय ऊँ सुमन्तवे नम:। एकटा फूल लऽ- एष पुष्पाञ्जलि सुमन्तवे नम:।एही तरहेँ दीक्षा पूजन, इन्द्रादि दशादिक्पाल, नवग्रह केर पूजन करी। एही तरहेँ हृषीकेशोसि। ऊँ पद्मनाभोसि। ऊँ माधवोसि। ऊँ बैकुण्ठोसि। ऊँ श्री धरोसि। ऊँ त्रिविक्रमोसि। ऊँ मधुसूदनोसि। ऊँ वामनोसि। ऊँ केशवोसि। ऊँ नारायणोऽसि। ऊँ दामोदरसि। ऊँ गोविन्दोसि केर उच्चारण करैत पञ्चोपचार पूजा कऽ प्रदिक्षणा कऽ प्रार्थना करी। तखन पुराने अनन्तक डोर स्पर्श कऽ पढ़ी - ऊँ सव्वंत्सरकृतां पूजां संपाद्य विधिवन्मम्। व्रजे दानी सुरश्रेष्ठ ह्यनन्त फलदायक।। न्यूनातिरिक्तानि परिस्फुटानि यानीह कर्माणि मया कृतानि। सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व प्रयाहि तुष्ट: पुनरागमाय। एहि तरहेँ पुरान डोरक विर्सजन कऽ फुलही बासनमे गायक दूध दऽ ओहिमे नव अनन्त डोरा राखि पुरान डोरा लऽ मथल जाइछ। मथनिहारकेँ पुछल जाइछ- की   मथै छी? पूजक केर उत्तर- क्षीर समुद्र। प्रश्न- की तकै छी? उत्तर- अनन्त भगवान। प्रश्न- भेटला? उत्तर- हँ। तहन स्वस्ति प्राप्त कऽ अनन्तकेँ उठाय माथमे सटा प्रणाम कऽ विर्सजन करी। तथा नव डोराकेँ प्रणाम करी आ मन्त्रक संग अनन्त बान्ही। 

डॉ विद्याधर मिश्र
विभागाध्यक्ष स्नातकोत्तर व्याकरण विभाग
कासिंद संस्कृत विश्वविद्यालय
साभार : मिथिला आवाज मैथिली दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित इ लेख


No comments: