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Sunday, September 8, 2013

कलंकसँ उबारै छथि चौठी चान : चौरचनपर विशेष

चतुर्थी सूर्यास्तक बाद अढ़ाइ घण्टा धरिक, लेल जाइछ। जँ तिथि दू दिन एहि समयमे पड़य तँ अगिला दिन व्रत ओ पूजा हो। भरि दिन व्रत कऽ साँझखन आङनमे पिठारसँ अरिपन देल जाइछ। गोलाकार चन्द्र मण्डलपर केराक भालरि (पात) दऽ ओहिपर पकमान, मधुर, पायस आदि राखी। मुकुट सहित चन्द्रमाक मुँहक अरिपनपर केराक भालरि दऽ रोहिणी सहित चतुर्थी चन्द्रक पूजा उज्जर फूल (भेँट, कुन्द, तगर आदि) सँ पच्छिम मुहेँ करी। परिवारक सदस्यक संख्यामे पकमान युक्त डाली आ दहीक छाँछीकेँ अरिपनपर राखी। केराक घौर, दीप युक्त कुड़वार (माटिक कलश), लावन आदिकेँ अरिपनपर राखी। एक-एक डाली, दही, केराक घौर उठाऽ ‘सिंह: प्रसेन...’ मंत्रक संग ‘दधिशंखतुषाराभम्...’ मन्त्र पढ़ि समर्पित करी। प्रत्येक व्यक्ति एक-एक फल हाथमे लऽ ओहि मन्त्रसँ चन्द्रमाक दर्शन कऽ प्रणाम करी। एहि दिन भिनसरेसँ स्त्रीगण सभ पकमानक सामग्री जुटेबामे लागि जाइ छथि। दुपहरमे पूड़ी, ठकुआ, पिड़ुकिया, मालपूआ आदि बनेबामे व्यस्त रहै छथि। कुशी अमावस्येसँ दहीक जोगाड़, डाली-छाँछीक व्यवस्था करै छथि।

भादव मासक शुक्ल पक्षक चतुर्थी (चौठ) तिथिमे साँझखन चौठचन्द्रक पूजा होइत अछि जकरा लोक चौरचन पाबनि कहै छथि। एहि समय चन्द्रमा कनी काल रहि डूबि जाइ छथि आ बरसातक कारण मेघ रहबापर तँ दुर्लभे रहै छथि। एहि दुर्लभताक कारणेँ लोकमे प्रचलित अछि जे कोनो व्यक्तिकेँ बहुत दिनपर देखबापर कहै छथि जे अहाँ तँ ‘अलख चान’ (अलक्ष्य चान) भऽ गेलहुँ। कतहु एकरे ईहो कहल जाइत अछि जे अहाँ ‘चौठी चान’ भऽ गेल छी।
पुराणमे प्रसिद्ध अछि जे चन्द्रमाकेँ एहि दिन कलंक लागल छलनि। तेँ एहि समयमे हुनक दर्शनकेँ दोषावह मानल जाइछ। मान्यता अछि जे एहि समयक चन्द्रमाक दर्शन करबापर फूसिक कलंक लगैत अछि। एहि दोषक निवारण करबाक लेल ‘सिंह: प्रसेन’ वला मन्त्रक पाठ कयल जाइत अछि।
ई मिथिलासँ भिन्न प्रान्तक व्यवहार थिक। मिथिलामे भादवक इजोरियाक चौठमे मिथ्या कलंक नञि लागय ताहि हेतु रोहिणी सहित चतुर्थी चन्द्रक पूजा होइछ। एकर कथा स्कन्द पुराणमे अछि- श्रीकृष्ण भगवानकेँ एक बेर मिथ्या कलंक लागि गेलनि जे ओ प्रसेन नामक यादवकेँ मारि ‘स्यमन्तक’ नामक मणि लऽ नुका कऽ रखने छथि, जखन कि ओ एहन काज नञि केने छला। ओ प्रसेनकेँ ताकऽ वन गेला तँ ओतऽ ओकर मृत शरीरकेँ देखलनि। ओतऽ एक गुफाक भीतर गेला तँ एक दाइ (बच्चा खेलेनिहारि) केर हाथमे मणि देखलनि। ओ बच्चाकेँ कहि रहल छल- सिंह प्रसेनकेँ मारलक, ओहि सिंहकेँ जाम्बवान् मारलनि, तेँ हे सुकुमार (जाम्बावनक पुत्र)! अहाँ जुनि कानू, ई स्यमन्तक मणि अहीँक थिक-

‘सिंह: प्रसेनमवधीत्, सिंहो जाम्बवता हत:।
सुकुमारक! मा रोदी:, तव एष स्यमन्तक:।।’

यैह वाक्य श्रीकृष्णकेँ कलंकसँ मुक्त केलकनि। तेँ एहि श्लोककेँ पढ़ि चौरचनमे चन्द्रमाकेँ देखबासँ लोक कलंक मुक्त होइ छथि। जाम्बवान् हुनका मणिक संग जाम्बवती कन्या सेहो देलनि। श्रीकृष्ण घर आबि ओ मणि सत्राजित्केँ दऽ कलंक मुक्त भेला, परञ्च शतधन्वा नामक यादव  सत्राजित्केँ मारि मणि लऽ अक्रूरकेँ दऽ घोड़ापर चढ़ि भागल। अक्रूर मणि लऽ चुपचाप काशी चलि गेल आ श्रीकृष्ण ओ बलराम मणिक हेतु शतधन्वाकेँ खेहारलनि। बाटमे श्रीकृष्ण ओकरा मारलनि, मुदा मणि नञि भेटलनि। बलदेवकेँ कृष्णपर अविश्वास भेलनि जे ई मणि नुका कऽ फूसि बजै छथि। पुन: श्रीकृष्णकेँ कलंक लगलनि। तखन ब्रह्माक उपदेशसँ चौरचन पूजा कऽ कलंक मुक्त भेला।
ईहो कथा अछि जे एक बेर गणेश भगवानकेँ देखि चन्द्रमा हँसि देलथिन। एहिपर ओ चन्द्रमाकेँ सराप देलथिन जे अहाँकेँ देखबासँ लोक कलंकी होयत। तखन चन्द्रमा भादव शुक्ल चतुर्थीमे गणेशक पूजा केलनि। ओ प्रसन्न भऽ कहलथिन- अहाँ निष्पाप छी। जे व्यक्ति भादव शुक्ल चतुर्थीकेँ अहाँक  पूजा कऽ ‘सिंह प्रसेन...’ मन्त्रसँ अहाँक दर्शन करत तकरा मिथ्या कलंक नञि लगतै ओकर सभ मनोरथ पुरतै।
ई चतुर्थी सूर्यास्तक बाद अढ़ाइ घण्टा धरिक, लेल जाइछ। जँ तिथि दू दिन एहि समयमे पड़य तँ अगिला दिन व्रत ओ पूजा हो। भरि दिन व्रत कऽ साँझखन आङनमे पिठारसँ अरिपन देल जाइछ। गोलाकार चन्द्र मण्डलपर केराक भालरि (पात) दऽ ओहिपर पकमान, मधुर, पायस आदि राखी। मुकुट सहित चन्द्रमाक मुँहक अरिपनपर केराक भालरि दऽ रोहिणी सहित चतुर्थी चन्द्रक पूजा उज्जर फूल (भेँट, कुन्द, तगर आदि) सँ पच्छिम मुहेँ करी। परिवारक सदस्यक संख्यामे पकमान युक्त डाली आ दहीक छाँछीकेँ अरिपनपर राखी। केराक घौर, दीप युक्त कुड़वार (माटिक कलश), लावन आदिकेँ अरिपनपर राखी। एक-एक डाली, दही, केराक घौर उठाऽ ‘सिंह: प्रसेन....’ मंत्रक संग                ‘दधिशंखतुषाराभम्...’ मन्त्र पढ़ि समर्पित करी। प्रत्येक व्यक्ति एक-एक फल हाथमे लऽ ओहि मन्त्रसँ चन्द्रमाक दर्शन कऽ प्रणाम करी। दक्षिणा उत्सर्ग कऽ प्रसाद ग्रहण करी। चन्द्रमण्डलपर राखल प्रसादकेँ उपस्थित पुरुषवर्ग ओकर चारू भर गोलाकार पंक्तिबद्ध कऽ पातपर फराक-फराक भोजन कऽ ओही ठाम खाधि खूनि गाड़ि दी एकरा मड़र भाङब कहै छैक। बहुत ठाम पातपर राखल पायसक बीचो-बीच चानी अथवा सोनाक बनल वस्तुसँ चीरि माड़र भङबाक परम्परा सेहो अछि। पूजाक स्थानमे पूजाक निर्माल आदिकेँ गाड़ि दी।
एहि दिन भिनसरेसँ स्त्रीगण सभ पकमानक सामग्री जुटेबामे लागि जाइ छथि। दुपहरमे पूड़ी, ठकुआ, पिड़ुकिया, मालपूआ आदि बनेबामे व्यस्त रहै छथि। कुशी अमावस्येसँ दहीक जोगाड़, डाली-छाँछीक व्यवस्था करै छथि।
एहि पाबनिक उल्लेख रुद्रधर कृत वर्षकृत्य (1400 इ.), महेश ठाकुरक तिथितत्त्वचिन्तामणि (1560 इ.), अमृतनाथक कृत्यसारसमुच्चय (1800 इ.) इत्यादिमे अछि। एकर प्रचलन पहिने कम छल, मुदा 1600 इ.मे राजा हेमांगद ठाकुर एकर प्रचार सम्पूर्ण मिथिलाक घर-घरमे करा देलनि। सरकारी ‘कर’ नञि देबाक कारण ओ दिल्लीमे जहल भोगै छला। ओतऽ क्रमश: हजार वर्षक ग्रहण लगबाक सूची ‘ग्रहणमाला’ नामसँ बनेलनि। बादशाह हिनक गणितक परीक्षा केलनि। हेमांगद ठाकुर चन्द्रमासँ प्रार्थना केलनि जे हमर समयक अनुसार ग्रहण लगबापर जँ हम कर मुक्त होयब तँ सम्पूर्ण तिरहुतमे अहाँक पूजा धूमधामसँ करायब। सैह भेल। तेँ अपन राज्य आबि ढोलहो देया चौरचन मनबेलनि। एहिना 1800 इ.मे हरिनगरक पं. चन्द्रदत्त झा ‘भक्तमाला’ मे लिखै छथि जे हुनक माय चन्द्रमाक पूजा कऽ पुत्र प्राप्त केलनि, तेँ हिनक नाम चन्द्रदत्त पड़ल। चन्द्रमाक आराधनासँ बहुतो व्यक्तिक कामना पूर्ण भेलनि अछि। मिथिलाक विशेष पर्व चौरचन अपनामे एहि ठामक संस्कृति केर अनेक बिन्दुकेँ समेटने अछि।
चन्द्रमा प्रणाम मन्त्र-

‘दधि-शंख-तुषाराभं,   क्षीरोदार्णव-संभवम्।
नमामि शशिनं भक्त्या, शंभोर्मुकुटभूषणम्।।’

अर्थात् दही, शंख ओ बर्फक समान स्वच्छ, क्षीर सागरसँ उत्पन्न चन्द्रमा (शशि) केँ भक्तिसँ प्रमाण करैत छी जे महादेवक मुकुटक भूषण थिका।

पं. श्री शशिनाथ झा
स्नातकोत्तर व्याकरण विभाग
कासिंद संस्कृत विवि, दरभंगा

साभार : मिथिला आवाज दैनिक समाचार पत्र 

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