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Wednesday, November 13, 2013

उत्तिष्ठ-उत्तिष्ठ गोविन्द देवोत्थान एकादशी आइ

कार्त्तिक मासक शुक्ल पक्षक एकादशी तिथिकेँ देवोत्थान व्रत कयल जाइत अछि। मान्यता अछि जे आषाढ़ शुक्ल एकादशीकेँ भगवान शयन करै छथि आ भाद्र शुक्ल एकादशीकेँ करोट फेरै छथि। ओतहि कार्त्तिक शुक्ल एकादशीकेँ जगै छथि। एहि तीनू एकादशीकेँ फराक-फराक नामसँ सम्बोधित कयल जाइत अछि। जहिया भगवान सुतै छथि से हरिशयन एकादशी, जहिया करोट फेरै छथि से पार्श्व परिवर्त्तिनी-कर्माधर्मा एकादशी आ जहिया जगै छथि ओ देवोत्थान एकादशीक नामसँ प्रसिद्ध अछि। एहि सभ एकादशीमे व्रत कयल जाइत अछि।  
देवोत्थान एकादशीमे व्रत करबा लेल एकादशी द्वादशी युक्त ग्रहण करबाक चाही। जँ एकादशी तिथिमल रूपी हो तँ तथापि सैह ग्राह्य मानल गेल अछि। कहल गेल अछि जे तिथिक मान एक दिन 60 दण्ड हो तथा दोसर दिन उदय समयमे किछु काल हो तँ ओ तिथि मल कहल जाइत अछि जे व्रतमे त्याज्य थिक, मुदा एकादशीक तिथिमलो व्रतमे ग्राह्य थिक। हँ, दशमी विद्धा एकादशी व्रत दोषपूर्ण मानल गेल अछि। एकादशी व्रतक पूर्वक दिन अर्थात् दशमी आ परवर्ती दिवस अर्थात् द्वादशी दिन एकभुक्त करबाक विधान अछि-
दशम्यां नरशार्दूल! द्वादस्यामपि वैष्णव:।
सम्यग् व्रतफलं प्रेप्सुर्नकुर्यान्नशि भोजनम्।। 
देवात्थान एकादशी दिन मिथिलामे घरे-घरे लोक भगवानक पूजा-अर्चना करै छथि। जतऽ भगवानकेँ जगायल जाइ छनि ओतहि भगवतीकेँ घर करबाक पारम्परिक विधान सेहो होइत अछि। आङनमे तुलसी चौड़ा लग पिठारसँ गृहस्थीक यावन्तो वस्तुक अड़िपन दऽ सिन्दुर लगा एक गोट अष्टदल अरिपन देल जाइत अछि। ओहि अरिपनपर एक गोट पीढ़ी राखल जाइत अछि। ओहि पीढ़ीमे सिन्दुर-पिठार लगा ओकरा चारू कात कुशियार आदिसँ मण्डप बनाओल जाइत अछि। साँझमे तुलसीचौड़ा लग पूजाक यावन्तो सामान फूल, चानन, धूप, दीप नैवेद्य तिल, तुलसीक मज्जर, फूल, माला आदि व्यवस्थित कयल जाइत अछि। नैवेद्यमे सामयिक वस्तु अल्हुआ, सुथनी, सिंहार आदि सेहो रहैत अछि। पीढ़ीक चारू कोनपर दीप देल जाइत अछि। तुलसी चौड़ा आ गोसाउनिक घरमे दीप जरायल जाइत अछि। व्रती स्नानादि कऽ आसनपर बैसि पञ्चदेवताक पञ्चोपचार पूजा करै छथि आ विष्णुपूजा कऽ भगवानकेँ उठेबाक मंत्र पढ़ि हुनका जगबै छथि। नक्त व्रत केनिहार साँझमे फलहार करै छथि आ पूर्ण व्रती राति भरि उपासमे रहि प्रात: काल ब्राह्मण भोजन करा पारण करै छथि। ओहि मण्डपमे पूजा-अर्चना कऽ भगवानकेँ मंत्रक संग उठाओल जाइ छनि। 
भगवानकेँ उठेबाक मंत्र :
ऊँ ब्रह्मेन्द्र  रुद्रैरभिवन्द्यमानो  भवान  ऋषिर्वन्दितवन्दनीय:। 
प्राप्तां तवेयं किल कौमुदाख्या जागृष्व-जागृष्व च लोकनाथ।।
मेघागता   निर्मल   पूर्ण   चन्द्र:   शरद्यपुष्पाणि  मानोहराणि। 
अहं   ददानीति   च   पुण्यहेतोर्जागृष्व   च   लोकनाथ।। 
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द! त्यज निद्रां जगत्पते। 
त्वया चोत्थीयमानेन उत्थितं भुवनत्रयम्।। 
एमहर साँझमे भगवतीकेँ घर करबाक पारम्परिक विध सेहो होइत अछि। तुलसी चौड़ा लगसँ गोसाउनक चिनुआर धरि पैरक छाप केर अरिपन देल जाइत अछि आ सिन्दुर-पिठार लागल अछिञ्जल भरल लोटासँ भगवतीकेँ घर करबाक विध पूरा कयल जाइत अछि। भगवानकेँ चढ़ाओल गेल प्रसादक वितरण अपना सर-कुटुम आ समाजक बीच कयल जाइत अछि। मिथिलामे कोनो पाबनि हो आ गीत नञि हो ई कोना भऽ सकैत अछि। बहुत ठाम भगवानक गीत-गायनक परम्परा सेहो अछि।

साभार :  मिथिला आवाज़ मैथिली दैनिक समाचार में प्रकाशित 

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