एहि ठाम कर्म शब्द क्रिया-सामान्य पराम्पराक रहलहुँ आवश्यक धर्म्य नित्य-नैमित्तिक आओर काम्य एहि विविध कर्म्म-कलापकेँ कहैछ। जे एहि शरीरक संस्कारसँ पूर्ण सम्बन्ध रखैछ। जे गर्भस्थिति समयसँ लऽ कऽ सभ मनुखक अपन-अपन वर्ण आओर आश्रमोचित शास्र-द्वारा कहल गेल अछि। यथा- शास्र कर्मानुष्ठान द्वारहिं ऐहिक (एहलोकी) पारत्रिक (परलोकी) सुख ओ माक्ष पर्यन्त जीव प्राप्त कऽ सकैछ, अन्यथा नञि। स्वेच्छाचारे कर्म कयलाक फल उक्त-विपरीत होइछ। ई कथा भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीतामे कहि गेल छथि :-
‘य: शास्र-विधिमुत्सृजय वर्त्तते कामचारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुख न पराङ्गतिम्।।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणन्ते कार्य्याकार्य्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्रविधानोक्तङ्कर्म्म कर्तुमिहार्हसि।।’
एहि मानवीय शरीरक उपदान (समवायि) कारण, माता-पिताक अशित-पीत अन्नजलादिसँ बनल त्वचा रुधिर मांस मेदा अस्थि मज्जा आओर शुक्र ई सात धातु अछि। ताहि सङ उक्त अशित पीत वस्तुक विकार आ वस्तु छोड़ि आन कोनो नञि शास्र आ युक्तिसँ सिद्ध होइछ। एकर शोधक शास्र-निर्द्दिष्ट (मन्वादिस्मृततिकथित) कर्म्मकलाप छोड़ि आन नञि जे :-
‘गाभै र्होमैर्जातकर्म्म चौलमौऽनीनिबन्धनै:।
बैजिर्क नार्मिकक्ष नै द्विजानामपसृज्यते।।’
इत्यादि मान्वादिक वचन जातेँ पुरुष स्री सबहि (सर्वजातिसाधारण) क हेतु शास्रमे कथित अछि। उक्त वचनमे होम शब्द यथाविहित गर्भाधानादि कर्म सामान्यवोपलक्षक बहुवचन निर्देर्शे मानल गेल अछि। एवं स्थावर जंगम संकल वस्तु अपन-अपन शास्र निर्दिृष्ट संस्कारक भेलहि उपादेव भेलापर ‘छोप’ (स्पृश्य) शब्दे कहल जाइछ। जे ‘छुपे स्पर्शे’ एहि धातुँ सँ व्याकरण शास्रतक प्रक्रिये बनैछ, से (संस्कार) नञि भेलहि ‘अछोप’ शब्दे (अस्पृश्य) कहल जाइछ। स्थावर (जीवेतर वस्तु)क संस्कार एक क्रिया-मात्रहुँ एक समयमे पर्याप्त होइछ। जंगम (जीव-विशेषयता मनुख)क रात्रिन्दिव अनेक रूपक शास्र निर्दिृष्ट अछि, जकरा नित्यकर्म्म शब्दे कहल जाइछ, जे अरूण-कर-ग्रस्त प्राचीक अवलोकन कालसँ होइछ। जे समय-विशेषमे आवश्यक (अकारणमे दोषाधायक) भेलें कयल जाइछ ओ निमित्तवश भेले नैमित्तिक कर्म्म कहल जाइछ। आओर जे कर्म्म फलाकांक्षा राखि इच्छाधीन कृतिक होइछ, सैह काम्य-कर्म्म कहल जाइछ। एहिमे पहिलुक अनुष्ठान रात्रिशेष (ब्राह्ममुहूर्त्त)सँ प्रारम्भ भऽ शयनान्तकाल (अहोरात्र)मे नानारूपक कहल अछि। एकर यथावत् (ठीक ठीक) अनुष्ठान मिथिलामे एखनहुँ जाहि रूपक जनसाधारणमे प्रचुर रूपँे प्रचरित अछि, ताहि रूपे अन्यदेशमे बिरले व्यक्तिमे पाओल जाइछ। संस्कार-भेद पूर्वकालमे (सग्नि सबहि द्विजकेँ रहैत) अनेक रूपक रहितहुँ एम्हर आबिकेँ 10 प्रकारे क (500 बरखक कर्म्मपद्धति वीरेश्वर, गणेश्वर, रामदत्तादिकृत देखलासँ) अवगत होइछ, जाहिमे 6 काम्य आ 4 नित्य जे, नामकरण-चुड़ाकरण, उपनयन आओर विवाह कहबैछ, यथायोग्य नञि कयले वर्णाश्रम धर्मक विलोपे मानल जाइछ। एकर विधि एखनहुँ मिथिलहिमे यथासमय ओ यथाशास्र होइत देखल जाइछ। आन (बहुतोक) ठाम तँ ‘गङ्गाजी हू पहिर जनौआत्’ एहि रूपक कोनो तीर्थस्थान कुण्डादिमे जनौ बोरि पहिरौलहि उपबीती (जनौ वाला) बनाओल जाइत देखल जाइछ। बहुतोक ठाम एक खुट्टा गाड़ि ओहिमे पञ्चपल्लव वा आम्रपल्लव-मात्रो बान्हि ताहि लग किछु होमक नाटक के ककरहुँ सँ गायत्री-मन्त्रे कान फुका देबे उपनयन कहबैछ। एवं परिवेत्ता, परिवित्ति, गोत्राध्याय, प्रवर-परिचय तँ कतिपये (गनल-गुथल) व्यक्तिमे देशान्तरमे देखला जाइछ। लघुशङ्का के पानि लेबाक तँ चर्चा कोन, ठाढे ठाढ़ लघुशङ्का करब एक सर्वसाधरण व्यवहार देशान्तरमे देखल जाइछ, जकर समाजमे कोनो विगान (निन्दा) नञि होइछ। सगोत्र असगोत्रक भेद विवाहमे कम्मे ठाम आदृत कयल देखना गेल अछि। दुहू (कन्या वरक) पक्षक समृद्धि मात्र देखि सम्बन्ध करब प्रचुर रूपे देशान्तरमे प्रचरित दूग्गोचर भेल अछि। बहुतोक व्यक्ति अपनाकेँ ब्राह्मण मानैत सगोत्रमे सम्बन्ध भेलाक परिहार वत्स-वात्स-कश्यप-काश्यप एहि रूपमे कयने छथि। बहुतोकेँ गोत्र प्रवर क किञ्चितो ज्ञान नञि देखला गेलैँ फलत: ओहि समाजसँ मन घृणा मानैछ। तथापि ओहि समाजक बहुतोक लोक सम्प्रति यौन-सम्बन्ध, सहभोजितादि सर्वविध सम्बन्ध ब्राह्मण मात्रसँ प्रचार करबाक हेतु उद्धर देखल जाइत छथि, जे मिथिला मे :-
‘याजनं योनिसम्बन्धं स्वाध्यायं सहभोजनम्।
सद्य: पतति कुर्वाण: पतितेन न संशय:।।’
एहि वचनक पर्यालोचन रखैत क्यौ नञि आयल छथि, न वा अगहुँ करै चाहैत छथि। लवण-संसृष्ट व्यञ्जादि विजाति (हिन्दू मात्र)क हाथक खैबामे विदेशी कथमपि नञि हिचकैत छथि। जे मैथिल:-
‘अन्नमग्न्यम्बुसंपर्कात्स्पिष्टं लवण योगत:।
शाकन्त्रितय योगेन भक्ततुल्यं न संशय:।।’
एहि वचनक अनुसार कथमपि नञि करैत छथि। मिथिलामे जैमिनीय-कर्म-मीमांसा शास्रक एतेक आदर छल ओ अछि, जे जैमिनिसूत्रपर महावृत्ति शास्रदीपिका, न्याय रत्नमाला, लोकवार्त्तिक, तन्त्रवार्त्तिक आदि सकल निबन्धक प्रणेता मैथिले पार्थसारथि मिश्र, भट्ट जगद्गुरु, कुमारिल आदिक कऽ भेले ओइनवार ब्राह्मण कुलतिलक महाराज भैरव सिंहक जरहटिया गामक पोखरिक यज्ञमे चौदह सय मात्र मीमांसकक संख्या आमन्त्रित (विदाय देबा योग्य) व्यक्तिक लिखल (ताड़पत्रमे) भेटि रहल अछि। अन्यान्य तदुपष्टम्भक न्याय-वैशेषिकादि दर्शन- अद्यन, गङ्गेश, वर्द्धमान, पक्षधर, वाचस्पति मिश्र- आदिहिक प्रणीत सर्वदेशमे एखनहुँ समाद्धत भऽ रहल अछि। वङ्गीय विद्वान रघुनाथ, जगदीश आदि एहि मिथिला देशसँ विद्यालाभ कै मैथिलहिक निर्म्मित ग्रंथपर टीका-टिप्पणी के अपनाकेँ लोक-विख्यात कयने छथि। अतएव श्रौत-स्मार्त्त-आगम तीनू कर्म्मकाण्डक यथावदनुष्ठान ओ लोकमे आविष्कार मैथिल विद्वानहिक कयल भेटैछ। ग्रह योगसँ लऽ के अश्वमेधान्त कर्म्म-कलापक कुण्डनिर्माण म.म. गोकुलनाथोपाध्याय अपना ‘कुण्डकादम्बरी’ ग्रंथमे कऽ गेल छथि, जे 1 पक्षे कुण्डक मान कहैत पक्षान्तरे हुनक कन्या गङ्गामे निमग्न बालिका ‘कादम्बरी’क शोक वर्णन करैछ। सन्ध्या तर्पण- एकोदिष्ट पार्वण-यथा नियम करब मैथिलहिमे पाओल जाइछ। देशान्तरीय तँ कतिपये सँ हो कोनो समय विशेषेमे कहियो करैत देखल जाइत छथि। नित्य नैमित्तिक काम्यक भेद परिज्ञान शून्य भेल, सन्ध्या-वन्दनहुँमे बड़ लम्बा संकल्प ओ तर्पणवाक्यमे ‘अस्मत्पिता’ ‘वासुस्वरुप’ आदिक वृथा शब्दक प्रयोग करब देशान्तरीय पण्डित-प्रकाण्डहुमे देखल जाइछ। जाहिमे भगवान पतञ्जलिक कथन छनि जे:-
‘मातरि वर्त्तितव्यं पितरि शुश्रूषितव्यं, नचोस्यते स्वस्यां मातरि स्वस्मिन्पिरीति।
सम्बन्धिशब्दादेवैतद्गम्यते या यस्य माता यो यस्त पितेति।’
एहि सँ अस्मत्-शब्द पित्रादि शब्दक सङ्ग लगाएब देशान्तरीय भ्रम ओ अज्ञानमूलके कहैक थिक। एवं :-
वसुरुद्रदितिसुता: पितर: श्राद्धदेवता:।
प्रीणयन्ति मनुष्याणां पितृन् श्रद्धे च तर्पिता।।
आयु: पूजां तथाऽरोग्यं स्वर्गं मोक्ष सुखानि च।
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीतानृणां पितामहा:।।
एहि याज्ञवल्क्यक वचने पित्रादि तीनि तीनि पुरुषक नामे समर्पित (देल) जलादिककेँ हुनका देहान्तर (लोकान्तर)मे पहुँचौनहार वसुरुद्रादित्य नामक (08/11/12) देवता जे अश्विनी कुमार दू मिलाय तैंतीस कोटि देवता संख्यात कयल जाइत छथि, जाहिमे अश्विनेय दुहूकेँ वैद्य भेले श्राद्धकार्य्य (पैतृक-कृत्य)मे अधिकार नञि देल गेले उक्त 31 कोटि (देवता) पित्रादिकक अधिष्ठातृ देवता मानल गेल। तत्स्वरूप कोना भेला? एवं तत: पर पितृवर्गक अधिष्ठाता ‘विश्वेदेव’ नामक पितृदेवता जे श्राद्धरक्षक भऽ त्रिपुरुषान्तर पितृवर्गक भागकेँ पहुचौनहार शास्रमे मानल गेल छथि, तिनका हुनक स्वरुप मानबो भ्रममूलकेँ बुझैक थिक। एवं पञ्चदेवोपासना जे नञि कयले देवलोकहुसँ अधोगति-प्राप्त होएब मार्कण्डेयपुराणमे लिखल अछि जे :-
शिवम्भास्करमग्निच केशवं कौशिकीन्तथा।
मनसाऽनर्चयन्याति देवलोकादधोगतिम्।।
एहिमे कौशिकी पदे दुर्गा लेल गेलि छथि। (मनसाऽपि अनचर्यन्) मनहुँ सँ नञि पूजलेँ (देवलोकादपि) देवलोकहुँसँ फिरथि। एहि रूपक एकर व्याख्या निबन्धकार लोकनि कयने छथि। एकर प्रचुर प्रचार नित्य-नैमित्तिक काम्य कर्म्ममात्र मिथिलहिमे खर्चतोभावें देखल जाइछ, अन्यत्र आडम्बराधिक्य कचित्-कदाचित् काम्ब कर्म्ममे रहितहुँ ई क्रम दृष्ट-भूत नञि होइछ। एवम् एकमात्र कोनो देवताक पूजा केँ नित्य कर्म्मक निर्वाह देशन्तरीय पण्डित-प्रकाण्डो करैत छथि। एहि कर्म्मकाण्डक समाजमे यथावत प्रचुर रूपक प्रचार स्थापनार्थ अद्भच प्रयत्न द्वारा बिहार गवर्नमेण्टसँ पूर्ण अनुरोध कै धर्म्म समाज संस्कृत कालेज मुजफ्फपुरमे श्रौत-स्मार्त्त-आगम-कर्म्मकाण्डक परीक्षा उपाध्यन्ता स्वर्गवासी मिथिलेश रमेश्वरसिंह बहादुर स्थापित कराओल ओ तकर अध्यापनार्थ अनेक सास्र रूपैया स्वयं देल, जे संस्था मिथिलेशक उपक्रान्त वर्तमान समयमे चलि रहल अछि। एहि पूवोक्त कार्यक्रमे मिथिलहि केर सर्वप्रथम एहि समयमे उक्त रूपक कर्म्मकाण्डसँ घनिष्ठ-सम्बन्ध कहल जा सकैछ। देशान्तरक एखनहुँ मिथिलाहीक आचरण अनुकरणीय भऽ रहल छनि, जाहिमे श्री दत्तादि कृत ‘आह्निक’ पूर्णरूपें प्रचरित अछि। तदनुसार आनो आनो कर्म्मकाण्डक ग्रंथ ‘नित्यकृत्यार्णव’ ‘नित्यकृत्य रत्नमाला’ आदि वृहलघु नित्यकर्म्म पद्धति तथा अतिप्राचीन वीरेश्वरादिकृत ‘देशकर्म पद्धति’ आदि मिथिलादिक सभ देशमे पूर्णमान्य भऽ रहल अछि। मिथिलामे नामत: पूर्व ‘भट्ट’ उपाधि कर्म्मठ (पूर्वमीमांसक)केँ रहैत भट्टपुरा आदिक ग्राम वर्तमान अछि। एकरे अनुकरण अपना गामक आगू ‘भट्ट’ पद लगाय दक्षिणीय ब्राह्मण अपनाकेँ कर्म्मठ होएब ख्यापित कयनेँ बुझल जाइत छथि। संप्रति मिथिलाक प्रतिदोषदृष्टया देखनिहारके ँ रत्नाकर दिशदृक्पात करय चाहैत छनि।
(1936 मे प्रकाशित ‘मिथिलांक’सँ साभार)